चौथ सूक्त

 

ॠ. 5. 65

 

यात्राके अधिपति

 

[ ऋषि हमारी सत्तामें अवस्थित, सत्यके दो महान् संवर्धकोंका आवाहन करता है ताकि वे हमारे सच्चे अस्तित्वकी उन प्रचुर सम्पदाओंकी ओर, उसकी उस विशालताकी ओर हमारी यात्रामें हमारा नेतृत्व करें, जिन्हें वे हमारी वर्तमान अज्ञानमय एवं अपूर्ण मानसिक सत्ताकी संकुचित सीमाओंमेंसे हमें निकालकर, हमारे लिए अधिकृत करते हैं । ]

यश्चिकेत स सुक्रतुर्देवत्रा स ब्रवीतु नः ।

वरुणो यस्य दर्शतो मित्रो वा वनते गिर: ।।

 

(य:) जो (चिकेत) ज्ञानके प्रति जागृत हो गया है (स: सुक्रतु:) वह संकल्पमें पूर्ण हो जाता है, (स:) उसे (देवत्रा) देवोंके बीच (नः) हमारी पुकार (ब्रवीतु) पहुँचाने दो । (दर्शत: वरुण:) अन्तर्दर्शनसे संपन्न वरुण (वा) और (मित्र:) मित्र (यस्य गिर:) उसके स्तुतिवचनोंमें (वनते) आनंद लेते हैं ।

ता हि श्रेष्ठवर्चसा राजाना दीर्घश्रुत्तमा ।

ता सत्पती ऋतावृध ऋतावाना जनेजने ।।

 

(ता हि राजाना) वे ऐसे सम्राट् हैं जो (श्रेष्ठवर्चसा) प्रकाशमें अत्य-धिक तेजस्वी हैं, (दीर्धश्रुत्तमा) सुदूर श्रवण1की शक्तिसे संपन्न हैं । (ता) वे (जनेजने) प्राणी-प्राणीमें (सत्पती) सत्ताके स्वामी हैं, (ऋत-वृधा) हूमारे अन्दर सत्यके संवर्धक हैं क्योंकि (ऋतवाना) सत्य उनका ही है ।

ता बामियानोऽवसे पूर्वा उप ब्रुवे सचा ।

स्वश्वास: सु चेतुना वाजाँ अभि प्र दावने ।।

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1. उनके पास दिव्य दष्टि और दिव्य श्रुति हैं, प्रकाश और शब्द हैं ।

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(इयान:) पथपर यात्रा करता हुआ मैं (अवसे) अपनी अभिवृद्धिके लिए (ता वाम्) उन तुम दोनोंका (सचा उप ब्रुवे) एक साथ आवाहन करता हूँ जो (पूर्वा) आदि और सनातन हो । जैसे ही ( सु-अश्वास:) पूर्ण अश्वो1 के साथ हम यात्रा करते हैं, हम उन्हें जो (सु चेतुना) ज्ञानमें परिपूर्ण हैं (वाजान् अभि प्र दावने) प्रचुर ऐश्वर्योंके दानके लिए (उप ब्रुवे) पुकारते है ।

मित्रो अहोश्चिदादुरु क्षयाय गातु वनते ।

मित्रस्य हि प्रतूर्वतः सुमतिरस्ति विधत: ।।

 

(मित्र:) मित्र (अंहो:2 चित् आत्) हमारी संकुचित सत्तामेंसे भी हमारे लिए (उरु) विशालताको (वनते) जीत लेता है । (क्षयाय गातुं वनते) वह हमारे घरकी ओर जानेवाले मार्गको जीतता है ।

 

(हि) क्योंकि (मित्रस्य सुमति: अस्ति) मित्रका मन तब पूर्णतासे संपन्न होता है जब कि यह (विधत:) सबका सामंजस्य करता है और (प्रतूर्वत:) सब बाधाओंको पार करता हुआ लक्ष्यके प्रति शीघ्रतासे आगे बढ़ता है ।

वय मित्रस्यावसि स्याम सप्रथस्तमे ।

अनेहसस्त्वोतय: सत्रा वरुणशेषस: ।।

 

(वयं) हम (मित्रस्य अवसि स्याम) मित्रदेवके उस संवर्धनमें निवास करें जो हमें (सप्रथस्तमे) पूर्ण विस्तार प्रदान करता है । तब (वरुण- शेषस:) विशालताके अधिपतिकी संतानें (सत्रा) सदा (त्वा-ऊतय:) तुझसे पोषित होती हुई (अनेहस:) आघात और पापसे मुक्त हों जाती है ।

युव मित्रेमं जनं यतथ: सं च नयथ: ।

मा मधोन: परि ख्यतं मो अस्माकमृषीणां गोपीथे न उरुष्यतम् ।।

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1. अश्व यहाँ सदाकी भाँति क्रियाशील शक्तियों एवं प्राणशक्तियों आदिका

   प्रतीक है, जिनके द्वारा हमारा संकल्प, हमारे कर्म और हमारी अभीप्सा

   अग्रसर होते हैं ।

2. अंहो:-पीड़ा और बुराईसे भरी संकीर्णता हमारे सीमित मनकी

   अप्रकाशित स्थिति है । मित्रदेवकी कृपासे प्राप्त पूर्ण मन:सत्ता-सुमति--

   विशालतामें हमारा प्रवेश कराती है ।

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यात्राके अधिपति

 

(मित्र) हे मित्रदेव ! (युवं) तुम दोनों (इम जनं) इस मानवप्राणीको (यतथ:) यात्रा करनेके लिए अपने मार्गपर लगाते हो (च) और ( सं नयथ:) उसका पूरी तरह पथप्रदर्शन करते हो । (अस्माकं मघोन: मा परि ख्यतम्) हमारे ऐश्वर्यके अधिपतियोंके चारों ओर अपनी बाड़ मत लगाओ और ( [ अस्माकम् ] ऋषीणां मो [ परि स्यतम् ] ) हमारे सत्यके द्रष्टाओंके चारों ओर भी अपनी बाड़ मत लगाओ । (गो1पीथे) हमारे प्रकाश (सुधा) के पानमें (न: उरुष्यतम्) हमारी रक्षा करो ।

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 ।. गो--प्रकाश अथवा गाय । यहाँ इस शब्दका अभिप्राय प्रकाशकी माताका ''दूध'' या सार (गोरस) है ।

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